उमर खालिद बिना किसी सुनवाई के 5 सालों से जेल में बंद है

उमर खालिद बिना किसी सुनवाई के 5 सालों से जेल में बंद है
उमर खालिद बिना किसी सुनवाई के 5 सालों से जेल में बंद है
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इस देश की पुलिस ने सरकार ने अदालत ने कुल मिलाकर इस देश के पूरे सिस्टम ने मिलकर एक नौजवान की जिंदगी को नर्क में तब्दील कर दिया न्याय को लेकर उसकी हर मामूली उम्मीद का बार बार खून किया और उसे उस मुहाने पर लाकर छोड़ दिया जहाँ उसे किसी भी समय लग सकता था कि शोषण, संवेदनहीनता और सियासी को चक्करों की चक्की में उसके जीवन का अर्थ ही क्या बचा है
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लेकिन उसने ऐसा नहीं सोचा क्योंकि उसका नाम उमर खालिद है वहीं उमर खालिद जिसे जेल में नहीं डाला गया होता तो वो दुनिया के किसी भी यूनिवर्सिटी में मॉडर्न हिस्टरी का शानदार प्रोफेसर होता वहीं उमर खालिद जिससे आदिवासियों पर पीएचडी करने के एवज में उन्हीं की तरह न्याय के अधिकार से बेदखल कर देने की कोशिश हुई और यह जारी है वहीं उमर खालिद जिसे आदिवासियों पर पीएचडी करने के मैं उन्हीं की तरह न्याय के अधिकार से बेदखल कर देने की बेहया कोशिशे हुई है
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और ये जारी है वहीं उमर खालिद जो अब 37 साल का है लेकिन जब उसे जेल में डाला गया था तो वो केवल 32 का था पिछले 5 साल में उसके मामले में एक भी सुनवाई नहीं हुई उसी उमर खालिद ने दिल्ली के तिहाड़ जेल से एक चिट्ठी लिखी है ज़रा सुनिए की वो कैसे सोचता है न्याय और उम्मीद के बारे में क्या लिखता है साहित्य के बारे में क्या पड़ता है जीवन के बारे में कैसे दिखता है इस सभ्य दुनिया के दस्तूर को जिसे जमूरियत कहते हैं महान लोकतंत्र, आधुनिक राजनीतिक पाखंड, सत्ता की धूर्तता और सत्ताधीशों की मूर्खता पर कराहता, कलंकित और कलुषित लोकतंत्र क्या आप सुनना चाहेंगे
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उमर खालिद ने क्या लिखा है उसने लिखा है कुछ ही दिनों में मुझे यहाँ लाये जाने के बाद साल पूरे हो जाएंगे कभी कभी मुझे हैरत होती है की मैं इतने लंबे समय तक अपने सेल की इतनी छोटी सी जगह में कैसे रह पाया कैसे इतने लंबे समय के दौरान बेचैन नहीं हुआ वैसे ऐसे दिन भी थे जब मैं चिड़चिड़ा और उदास रहता था और दुर्भाग्य से ऐसे समय में मैंने अपना सारा गुस्सा सारी खीज मेरे दोस्त बनो बनो, ज्योत्स्ना लाहिरी पर उतारा लेकिन ऐसे दिन बहुत कम थे ज्यादातर समय मैं शांति से रहा यहाँ एक व्यक्ति के तौर पर बहनों ज्योत्सना को मैं सलाम करता
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उसकी तकलीफ, उसके संघर्ष, उसके धैर्य और उसके संगम ने प्रेम में विश्वास को न केवल समृद्ध किया है, बल्कि खामोशी से भयावह ना उम्मीदों के आसमान पर भी उम्मीदों के ढेर सारे झिलमिलाते सितारे टांके बहनों ने बताया है कि न्याय के बिना प्रेम का कोई अर्थ नहीं और प्रेम से काट कर किया जाने वाला न्याय अधूरा है
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खैर, उमर खालिद ने लिखा है, हाल ही में मैंने की किताब द हाउस ऑफ द डेड पढ़ी ये काल्पनिक कहानी पर आधारित है, लेकिन उन्नीसवीं सदी के मध्य में जार के शासन के दौरान रूस में कैदी के वास्तविक अनुभवों पर आधारित है किताब पढ़ते हुए मेरे मन में सबसे अजीब विचार ये आया कि दुनिया के इतने सारे तरीकों से बदल जाने के बावजूद कैद के अनुभवों में कितना कम बदलाव आया है
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किताब में वर्णित घटनाओं को 150 साल से ज्यादा हो चूके हैं और ये दुनिया के एक अलग हिस्से से लेकिन कई जगहों पर मुझे ऐसे लगा जैसे दोस्तोवस्की उन चीजों और घटनाओं का वर्णन कर रहा है जो मैं यहाँ तिहाड़ में अपने आसपास देखता हूँ किताब में एक जगह उन्होंने एक साथी कैदी के कैद की स्थिति के बारे में ब्योरा देते हुए लिखा है, हम जीवित होते हुए भी जीवित नहीं है और हम अपनी खबरों में भी नहीं है हालांकि हम मर चूके हैं मुझे याद है कुछ समय पहले मैंने बान मतलब अनिरबान भट्टाचार्य और डेज़ी को बताया था कि 7 दिन की अंतरिम जमानत के बाद जेल में वापस आना कितना तविक था
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मैंने सचमुच में जेल के बारे में एक बाइबल की कहानी का हवाला दिया था जो जीवित लोगों की कब्रिस्तान की तरह दिलचस्प बात ये है कि मैंने तब तक किताब नहीं पढ़ी थी में रहने में वाकई कुछ ऐसा है जो किसी को जीवन और मृत्यु के बीच जैसा महसूस कराता है और अगर मैं इसे जिंदा लोगों का कब्रिस्तान कहने के लिए बाइबल की कहानी का हवाला देता, तो दोस्तोवस्की ने अपने लेख का शीर्षक का घर रखा होता अपने लेख में बहुत पहले ही दोस्तोवस्की लिखते हैं
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की जेल में धैर्य सीखने के लिए पर्याप्त समय होता है लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं इस धैर्य को बाहरी दुनिया में ले जा पाऊंगा एक बार जब मैं बाहर आऊंगा, जब भी आऊं। मैं अपने बेचैन स्वभाव में वापस आ जाऊंगा मुझे यह उन सात दिनों में एहसास हुआ जो मैंने पिछले दिसंबर में बाहर बिताए थे वैसे भी मेरे इतने लंबे समय तक इस जगह पर रहने और इसे लेकर शांत रहने का एक और कारण यह है कि मैंने समय के बारे में इतने बड़े हिस्से में नहीं सोचा है। हालांकि अंततः ये साफ हो गया की एक लंबी यात्रा होगी लेकिन यहाँ के दिनों में रहते हुए
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ध्यान केंद्रित करने के लिए एक नजदीकी तारीख होती है जो आम तौर पर कुछ दिन या अधिक से अधिक कुछ महीने दूर होती है मैं जुलाई 2021 से चल रही जमानत की सुनवाई के बारे में बात कर रहा हूँ छोटी अवधि की ये तारीख है हमें आगे देखने के लिए कुछ देती है, कुछ जीने के लिए कुछ समय को चिन्हित करने के लिए और साथ ही कुछ उम्मीद करने के लिए भी जेल में आशा के बारे में दोस्तोवस्की के कुछ विचार है, वो लिखते हैं जेल में अपने जीवन के पहले दिन से ही मैंने आजादी के सपने देखने शुरू कर दिए थे
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हजारों अलग अलग तरीकों से ये हिसाब लगाना की जेल में मेरे दिन कब खत्म होंगे मेरा पसंदीदा काम बन गया ये हमेशा मेरे दिमाग में रहता था और मुझे यकीन है कि हर उस व्यक्ति के साथ भी होता है जिससे एक निश्चित अवधि के लिए आजादी से वंचित किया जाता है मुझे नहीं पता कि दूसरे कैदियों ने भी मेरी तरह ही सोचा और हिसाब लगाया या नहीं, लेकिन उनकी उम्मीदों की अद्भुत हिम्मत ने मुझे शुरू से ही प्रभावित किया
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आजादी से वंचित कैदी की उम्मीदें एक स्वाभाविक जीवन जीने वाले व्यक्ति की उम्मीदों से बिल्कुल अलग होती है एक आज़ाद व्यक्ति उम्मीद करता है बेशक उदाहरण के लिए ही सही किस्मत बदलने की या किसी काम की सफलता की लेकिन वो जीता है, वो काम करता है, वो जीवन की दुनिया में उलझा रहता है किसी कैदी के साथ यह बहुत अलग है उसके लिए भी जीवन है जेल की जिंदगी दी गयी है
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लेकिन अपराधी चाहे जो भी हो और उसकी सजा की अवधि जो भी वो सहज रूप से अपने भाग्य को कुछ सकारात्मक अंतिम वास्तविक जीवन के हिस्से के रूप में स्वीकार नहीं कर पाता हर कैदी को लगता है की वो घर पर नहीं बल्कि किसी से मिलने आया है वो 20 साल को ऐसे देखता है जैसे वो 2 साल हो और उसे पूरा यकीन है कि जब उसे 55 साल की उम्र में रिहा किया जाएगा तो वो उतना ही जीवन और ऊर्जा से भरा होगा जितना कि वो अभी 35 साल की उम्र में
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क्या आप इस लाइन में छुपे उमर खालिद के दर्द को समझ पा रहे है न्याय मिलने, आजाद होने और अपनी बात समझा पाने की तड़प समझ पा रहे है अपनी चिट्ठी को खत्म करते हुए उमर ने लिखा है किताब में एक बिंदु की लिखते हैं, किसी लक्ष्य और उस तक पहुंचने के लिए बिना कोई कोशिश किये कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता जब वो जीवन में हर तरह की उम्मीद हर तरह के उद्देश्य को खो देता है
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तो मनुष्य अक्सर अपने दुख में एक राक्षस बन जाता है कैदियों का एकमात्र उद्देश्य स्वतंत्रता और जेल से बाहर निकलना था चिट्ठियां खत्म हो जाती है लेकिन अन्याय का वो अंधकार खत्म नहीं होता है जिसकी अवतार की क्रूरता और दमन ने जेल की कोठरी में खर्च होती उमर खालिद की आवाज पर खामोशी का बेचैन आलाप लिख दिया है
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