कैसे चीन ने कब्जा कर लिया भारत का ये हिस्सा

कैसे चीन ने कब्जा कर लिया भारत का ये हिस्सा
कैसे चीन ने कब्जा कर लिया भारत का ये हिस्सा
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दोस्तों जब भी कश्मीर की बात आती है तो उसमें हम पीओके की बात तो करते ही हैं लेकिन अक्साई चीन को भूल जाते हैं दरअसल, ये इलाका लंबे समय से चीन की इल्लीगल ऑक्यूपेशन के अंदर है जो यहाँ लेकिन इसकी कहानी उतनी सिंपल नहीं है भाइयो जितनी सामने से दिखाई देती है अंग्रेजों से पहले से इस रिटर्न को लेकर काफी विवाद रहा है और भारत में हमेशा से ही इसे लद्दाख के पाठ की तरह ही क्लेम किया है
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ऐसे में सवाल ये आता है कि आखिर इस रीज़न पर चीन का कब्जा कैसे हुआ क्या है अक्साई चीन की कहानी आइए जानने की कोशिश करते है हिस्टरी जानने के लिए हमें लगभग 182 साल पहले यानी 1842 में चल ना होगा
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इस समय कश्मीर पर राजा गुलाब सिंह का शासन था ये राजा सिख बादशाह को अपना मानते थे और उन्हीं के नाम पर जम्मू कश्मीर पर राज़ किया करते थे गुलाब सिंह ने 1842 में लद्दाख के इलाके को अपने कब्जे में किया था इसके बाद उन्होंने तिब्बत को भी अपने काबू में करना चाहा लेकिन उनका यह अभियान फेल हो गय
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इस तरह से और गुलाब सिंह के बीच में एक समझौता होता है और इस समझौते में यह फैसला लिया गया कि बॉर्डर्स को पहले की तरह ही छोड़ दिया जायेगा इस समय यहाँ पर बॉर्डर्स अच्छे से डिफाइन नहीं थे क्योंकि ये इलाका ज्यादातर खाली रहता था एक साइड चीन कभी सिल्क रूट का ही हिस्सा माना जाता था ये इलाका एक बंजर इलाका हैं जहाँ कोई नहीं रहता था
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यहाँ पर लोग तभी आते थे जब वो एक जगह से दूसरी जगह ट्रैवल कर रहे हो फिर 1846 आते आते अंग्रेजों ने सिख साम्राज्य को मात दे दी थी लेकिन गुलाब सिंह यहाँ के महाराजा बने रहे अब फर्क सिर्फ इतना था कि वो सिख साम्राज्य के नीचे नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के नीचे रहकर शासन कर रहे थे ब्रिटिश अंपायर ने यहाँ की बाउंड्री को साउथ में पनग लेख पर सीमित कर दिया और कराकोरम पास से उत्तर की तरफ जाने वाले एरिया को अभी भी अन रिकॉग्नाइज्ड एरिया ही माना गया
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गुलाबसिंह शहीदुल्लाह के एरिया को अपनी नॉर्दन बाउंड्री मानते थे जो कि कराकोरम पास से करीब 127 किलोमीटर दूर थी इस समय का रीज़न चीन के कंट्रोल में नहीं था, बल्कि ये कहीं इन्डिपेन्डेन्ट टेरिटरीज में बंटा हुआ था, जिनके लिंक चीन से थे यहाँ पर रहने वाले ज्यादातर लोग हैं इतनी काली से थे जो इस्लाम को मानते थे इन्हीं 12 ट्रीस में से एक को चाइनीज तुर्किस्तान कहा जाता था जो संजो पास को अपनी बाउन्ड्री मानती थी अब महाराजा का क्लेम भी संजो पास तक था इसलिए कोई दोनों के बीच में नहीं था 1862 में यहाँ पर रिवोल्ट हुआ यहाँ के मुस्लिम ने चीन की डाइनैस्टी के खिलाफ़ ये विद्रोह छेड़ा था
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वॉल्ट नहीं यहाँ पर चीन की पोज़ीशन को और भी वीक कर दिया यही वजह है कि 1864 में गुलाब सिंह ने शहीदुल्ला के एक किले का निर्माण भी करवाया। इस किले को बनाने में गुलाब सिंह को खोतान का सपोर्ट भी मिला जो की एरिया का एक था के ऊपर जल्द ही याकूब एक नाम के एक लड़ाके ने 1865 में हमला कर दिया और 1800 सड़सठ में गुलाब सिंह को भी शहीदुल्लाह से पीछे हटना पड़ा और कुछ सालों तक ये एरिया याकूब एक के कंट्रोल में ही रहा 1865 में एक ब्रिटिश सिविल सर्वेंट को बॉर्डर्स को डिफाइन करने का टास्क दिया जाता है
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जॉनसन ने जो मैप बनाया उसमें अक्साई चीन महाराजा के ही कंट्रोल में था, लेकिन वो अपना अधिकार आगे पास। और कुंदन माउंटेन्स तक मना करते थे। जॉनसन ने जो यहाँ पर बॉर्डर्स ड्रॉ किये, फिर 1878 के साल में चीन ने पाकिस्तान के रीज़न को एक बार फिर कैप्चर कर लिया और इसका नाम रख दिया गया इस समय रशियन एम्पाइअर भी तेजी से फैल रहा था और अंग्रेज चाहते थे कि भाई भारत और रूस के बीच में एक बफर ज़ोन जरूर रहे यही वजह थी कि उन्होंने चीन को यहाँ रहने दिया 1890 तक शहीदुल्ला का एक किला भी चीन के कंट्रोल में आ गया था
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1892 तक चीनीयों ने काराकोरम पास पर बाउंड्री पिलर भी खड़े कर दिए थे और एक नया बॉर्डर तैयार हो रहा था लेकिन अभी भी अक्साई चिन का एरिया कश्मीर के ही अंडर माना गया इसके बाद रूसियों के डर से अंग्रेजों ने डिसाइड किया की भाई वॉटरशेड को नई बाउंड्री की तरह देखा जायेगा इसमें वो नदियां जिनका पानी जाकर इंडस रिवर में मिलता था उन्हें भारत की तरफ कर दिया गया और तालीम बेसन में जाने वाले पानी को चीन की तरफ़ अब नॉर्थ में तो ये रीज़न इस तरह से डिफाइन हो गया लेकिन ईस्ट की तरफ चुपचाप रिवर गलवान रिवर और चांग चेन्मो रिवर थी, जिनका पानी में आता था
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और कराकस रिवर का पानी तारिम बेसिन में खैर 1899 में अंग्रेजों ने एक नया प्लैन दिया जिससे मैं कोर्टनी मैकडॉनल्ड लाइन कहा जाता था। इसमें उन्होंने अक्साई चीन का ज्यादातर एरिया चीन से दिया और इसके बदले
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वो चाहते थे ये टीम कौन सा रिवर के एरिया में दखल न दें जो की आज गिलगिट बाल्टिस्तान का हिस्सा है इस प्रपोजल पर चीन के किंगदाओ डाइनैस्टी ने अपना कोई रिस्पॉन्स दर्ज नहीं करवाया, लेकिन 1911 आते आते चीन में शायद हाइ रेवोल्यूशन आ गया था जिससे वहाँ रूल करने वाली डाइनैस्टिक का शासन खत्म हो गया। इसके बाद से ब्रिटिशर्स भी जॉनसन लाइन को ही ऑफिसियल बॉर्डर की तरह ट्रीट करने लगे और इसी बीच में चीन के अंदर भी जो मैप्स पब्लिश हो रहे थे
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उनके अंदर जॉनसन लाइन को ही भारत और चीन को ऑफिशल बाउंड्री की तरह मेन्शन किया जा रहा था चीन की पोस्टल एटलस और चाइना ने 1917 से लेकर 1933 को जॉनसन लाइन को ऑफिसियल बाउंड्री की तरह ही ट्रीट किया और 1925 में जब टेकिंग यूनिवर्सिटी एटलस ने भी अपने मैं पब्लिश किए तो उसमें भी जॉनसन लाइन ही ऑफिसियल बाउंड्री की तरह ही रिकॉग्नाइज की गई
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जिसमें अक्साई चीन का इलाका भारत के ही कंट्रोल में था 1947 में आजादी मिलने के बाद भी भारत में जॉनसन लाइन को ही अडॉप्ट किया लेकिन 1949 में चीन में एक बड़ा बदलाव आया वहाँ पर की सीसीपी का शासन आ चुका था जिन्होंने जल्द ही तिब्बत को अपने कंट्रोल में ले लिया तिब्बत के कारण ही अक्साई चीन का इलाका एक बार फिर डिस्प्यूट में आया
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अब जैसा की हमने बताया की एक साइड चीन पर ना ही लोग रहा करते थे और ना ही उस जमीन पर कुछ उगाया जा सकता था इसलिए ये एरिया आज तक जिंस 20 साम्राज्य के अधीन रहा हो उन्होंने कभी वहाँ पर अपना कंट्रोल जमाने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए थे साथ ही नेशन स्टेट का कॉन्सेप्ट काफी नया कॉन्सेप्ट है जो पहले एग्ज़िट नहीं करता था एम्पायर्स के बीच में जो बॉर्डर्स हुआ करते थे वो आज की तरह प्रॉपर्ली मांग नहीं होते थे जब तक अंग्रेजों का भारत पर शासन रहा तब तक तो अक्साई चीन के एरिया को जॉनसन लाइन के अकॉर्डिंग भारत का हिस्सा माना जाता था लेकिन ये बॉर्डर एग्ज़ैक्ट्ली कहाँ पर है इसे लेकर बहुत ज्यादा क्लैरिटी नहीं थी
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लेकिन अब तिब्बत और शिनजियांग को जोड़ने वाला रास्ता अक्साई चीन से होकर ही निकलता था यही वजह थी दोस्तों की अब चीनीयों को अक्साई चीन की जरूरत थी 1 जुलाई 1954 में प्रधानमंत्री नेहरू ने चीन के प्रधानमंत्री सो हूँ एन लाई को एक पत्र लिखकर इस बॉर्डर को सेटल करने के लिए भी कहा था लेकिन 1957 तक चीन इस इलाके में एक हाइवे बना चुका था इस हाइवे की जानकारी दुनिया को तब मिली जब भैया चीन की एक मैगज़ीन में या पब्लिश किया गया कि उन्होंने दुनिया का सबसे ऊंचा हाइवे कॉन्स्टेंट कर लिया है मैप में इस हाइवे की लोकेशन ऑक्साइड चीन से होकर ही गुजरती थी अब ये पोज़ीशन भारत के लिए एक्सेप्टेबल नहीं थी जी हाँ, क्योंकि वही इस समय नॉर्थ ईस्ट की तरफ भी चीन और भारत के बीच में कई बॉर्डर डिस्प्यूट शुरू हो गई थी
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इस दौरान 1952 में भारत और चीन का रिश्ता जो हिंदी चीनी भाई भाई से शुरू हुआ था वो 60 का दशक आते आते एक दुश्मनी में बदलता चला गया बॉर्डर डिस्प्यूट के अलावा चीन भारत से इसलिए भी नाराज थे क्योंकि हमने दलाई लामा को शरण जो दी थी अब दलाई लामा तिब्बत के ऑफिशल लीडर माने जाते हैं इसलिए उनके चेन से बाहर रहने तक तिब्बत के लोगों के लिए चाइनीज गवर्नमेंट को सुप्रीम मानना पॉसिबल नहीं है यही वजह थी कि ये पूरा डिस्प्यूट 10 अक्टूबर 1962 के दिन एक युद्ध की शक्ल ले लेता है
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इस दिन चीन ने अरुणाचल प्रदेश की थागला रिज के इलाके में हमला कर दिया था इस समय तक भारत को ऐसा नहीं लगा था की भाई दोनों देशों के बीच में कोई युद्ध हो सकता है इसलिए इस पोस्ट पर सिर्फ 56 जवान तैनात हैं, जबकि चीन की तरफ से 600 जवानों की एक फौज भेजी गयी फिर भी यह सिपाही चीनीयों के अटैक को नाकाम करने में कामयाब रहे
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लेकिन इसके कुछ वक्त बाद चीन ने एक बार फिर से हमला किया इस बार वो भी साथ लेकर आए थे जिसके लिए हमारे सिपाही तैयार नहीं थे इसके कुछ वक्त बाद एक तीसरा हमला भी हुआ इसके बाद कोई ऑप्शन नहीं बच रहा था और हमारे सिपाहियों को पीछे हटना ही पड़ा भारत ने चीन से युद्ध की उम्मीद नहीं की थी अगस्त 1962 में ही मेजर जनरल केजेएस ढिल्लन का बयान ये था की पुरानी एक्सपिरियंस को देखते हुए ऐसा लगता था के युद्ध का कोई खतरा नहीं है
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कुछ फाइरिंग दोनों तरफ से होती है लेकिन उसके बाद चीनी शांत हो जाते हैं और यही वजह थी कि जब 10 अक्टूबर का हमला हुआ तो हमारी फौज उसके लिए तैयार ही नहीं यहाँ तैनात सेवंथ ब्रिगेड को करीब 600 टन सप्लाई इसके जरूरत थी लेकिन उनके पास सिर्फ इसका 20% ये था इसके बाद 18 अक्टूबर आते आते चीन ने अपनी तैयारियां बढ़ा दी और 19 अक्टूबर तक करीब 2000
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चीनी सिपाही यहाँ पर आ चुकी थी 10 अक्टूबर के हमले के 10 दिन बाद यानी 20 अक्टूबर 1962 के दिन इस युद्ध को ऑफिशियली शुरू कर दिया गया 150 गन्स और मोटर्स के साथ सिपाही सुबह के 5:14 पर यहाँ पहुंचे और अगले सात घंटों तक वह लगातार फायर करते रहे अगली सुबह तक भारतीय फौज की 493 जवान शहीद हो चूके थे
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भारत मोर्चे को लीड कर रहे ब्रिगेडियर जॉन डाल्वी को भी युद्ध में बंदी बना लिया गया नॉर्थ ईस्ट के रिटर्न में जीतने डिस्प्यूटेड टेरेटरीज़ भारत और चीन के बीच थी उन पर भी जल्द ही कब्जा हो गया था दूसरी तरफ उन्होंने लगता की तरफ से भी एक दूसरा अटैक कर दिया था ये अटैक्स 19 अक्टूबर के दिन ही शुरू हो गए थे जब भारतीय मोर्चों पर हमला हुआ इस समय यहाँ दौलत चाप वैली जैसी पोस्ट पर फोर्टीन्थ जम्मू एंड कश्मीर के जवान तैनात थे
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दौलत बेग ओल्डी के पास ही चांदनी नाम की एक पोस्ट थी जहाँ पर 30 फौजियों ने मोर्चा संभालना हुआ था इस पोस्ट पर करीब 500 चीनी सैनिकों ने हमला बोल दिया था पूरे 1 दिन तक ये सभी सिपाही बहादुरी से उनका मुकाबला करते रहे, लेकिन आखिर में सिर्फ एक ही सिपाही यहाँ पर जिंदा बच सका 20 अक्टूबर आते आते चीनीयों ने ट्रिप चाप, वैली वैली और पेनगॉन्ग लेक को भी अपने कब्जे में कर लिया था
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इंडियन आर्मी के लिए उस समय जो सबसे इम्पोर्टेन्ट एरिया था वो जो शुल्क आइडिया था जो की 14,000 फिट की उचाई पर था इसके उत्तर की तरफ लेक थी यही वो रीज़न था जहाँ इस वॉर की सबसे हिरोइक पैटर्न बैटल ऑफ रेजांगला लड़ी गई थी लेकिन उसमें अभी वक्त था 20 अक्टूबर के दिन शुरू होने के बाद 30 अक्टूबर तक युद्ध में एक तीन हफ्ते तक का ब्रेक आ गया था
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इस बीच में नेहरू और जो ही इन लाइक के बीच में कई लिटर्स ऐक्सचेन्ज हुए जो हूँ इनलाइन ने अपने लेटर में एक थ्री पॉइंट प्रपोजल भेजा था इसमें कहा गया था कि दोनों देश शांति से इस मामले को हल करें दोनों ही सेनाएं अपनी पोज़ीशन से 20 किलोमीटर पीछे हट जाएं और दोनों ही प्रधानमंत्री एक सेटलमेंट के लिए आपस में मिले नेहरू ने इस थ्री पॉइंट प्रपोज़ल को साफ साफ रिजेक्ट कर दिया था
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नेहरू का तर्क ये था की भाई चीन ने हमला करके पहले भारत की टेरिटरी अपने कब्जे में कर ली है और अब वो शांति की बात कर रहा है इसके साथ साथ आप नेहरू को चीन पर भरोसा भी नहीं था और वो किसी नई चाल में भी फंसना नहीं चाहते थे अब इसके कुछ दिन बाद 4 नवंबर के दिन बहू ऑनलाइन नेहरू से कहा कि वो उन्हें ऑक्साइड चीन का एरिया दे दें, जिसके बदले में वो नॉर्थ ईस्ट में अपने सभी क्लेम्स छोड़कर मैकमोहन लाइन पर अगरी कर जाएंगे
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नेहरू ने इस ऑफर को भी चेक कर दिया और 14 नवंबर 1962 के दिन युद्ध एक बार फिर से शुरू हो गया लेकिन इस बार युद्ध चीन ने नहीं बल्कि भारत ने शुरू किया था नॉर्थ ईस्ट में वालोंग नाम का एक शहर है जिसपर चीन अपना क्लेम करता था यहाँ पर युद्धविराम के दौरान भारत ने हमला करने के लिए एक डिटेल प्लैन बनाना शुरू कर दिया अब सिक्स्थ कुमाऊं रेजिमेंट की चार कंपनियां बनाई गई थी
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जिनमें से ए और बी कंपनी को कैप्टन बीएन सिंह और मेजर बीएन शर्मा लीड कर रहे थे इसके अलावा सी कंपनी एक रिज़र्व फोर्स की तरह थी और टी कंपनी को ग्रीन पिम्पल नाम की एक पोस्ट पर रोकने के लिए कहा गया था लेकिन बिलॉन्ग से सिर्फ थोड़ी दूर होने के बावजूद भी 16 नवंबर तक युद्ध में चीनीयों का पलड़ा भारी होने लगा था
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बैटल ऑफ बिलॉन्ग में भारत की हार हुई लेकिन बाद में ये पोस्ट चीनीयों ने भी खाली कर दी थी खैर अब चलते हैं वापस लद्दाख की तरफ जहाँ बैटल ऑफ रेजांगला लड़ी गई देखिये यहाँ पर कुमाऊं रेजिमेंट की 13 पटेल इनको जो शूट को डिफेंड करने के लिए जिम्मेदारी दी गई थी
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यहाँ सी कंपनी में 117 सोल्जर्स थे जिनकी कमान मेजर शैतान सिंह के हाथ में थी 18 नवंबर की सुबह चीन ने यहाँ पर हमला कर दिया दोनों तरफ से हेवी कैसुअल्टीस हुई लेकिन चीन नाकामयाब रहा चीन का पहला प्रयास जो है, फेल हो गया था इसलिए वो दूसरी बात हेवी आर्टिलरी के साथ हमला करने लगा
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इस बार बचने के लिए भारतीय सिपाही अपने में ही रुके रहे इस वजह से उन्हें ज्यादा नुकसान नहीं हुआ इस तरह से चीन का दूसरा अटैक भी फेल हो गया लेकिन अब तीसरे अटैक में वो कामयाब रहे पेस अटैक में भारतीय फौजियों ने इस बहादुरी से चीनीयों का मुकाबला किया था कि एक भी सिपाही की बंदूक में गोली नहीं बची थी उन्होंने सभी गोलियां दुश्मनों पर दागी थीं इसी युद्ध के लिए मरणोपरांत मेजर शैतान सिंह को परमवीर चक्र भी मिला था
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अब इसी बीच 20 नवंबर के दिन भारत ने चीन के खिलाफ़ अमेरिका से मदद की अपील की। हमारी का इस समय खुद क्यूबा मिसाइल क्राइसिस में फंसा हुआ था, जो एक न्यूक्लियर
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वॉर शुरू कर सकती थी अमेरिकन से नेहरू ने उनकी फोर्स का सपोर्ट और जहाज मांगे थे, जिन्हें प्रेसिडेंट केनेडी ने देने से इनकार कर दिया हालांकि उन्होंने इंडियन आर्मी को हथियारों, नेशन्स और क्लोदिंग और प्रोटेक्टिव गियर का सपोर्ट देने के लिए हामी जरूर थी, लेकिन उनकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि 21 नवंबर 1962 के दिन अपने आप ही चीनी सेना वापस लौट गई
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ये डिसिशन उन्होंने क्यों लिया यह आज भी डिबेट का विषय है लेकिन वो एक्स्पर्ट का कहना है कि जल्द ही सर्दियों का मौसम शुरू होने वाला था इसलिए चीनीयों के लिए ना ही आगे अटैक करना पॉसिबल था और ना ही इस रीज़न में अपनी पोज़ीशन को होल्ड कर पाना यही वजह है
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उन्होंने जिन टेरिटरीज पर कब्जा किया था उनमें से ज्यादातर वो छोड़कर ही चले गए थे दूसरी तरफ चीन पर उनका कंट्रोल पहले की तरह बना रहा और फिलहाल के लिए लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल नहीं एक बॉर्डर का काम किया 1962 का ये युद्ध पूरे भारत के लिए एक बड़ा झटका था
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जिससे उबर पाना आसान नहीं था उस समय के डिफेन्स मिनिस्टर वीके कृष्ण मेनन ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया और कहते हैं कि नेहरू की तबियत भी 1962 के बाद कभी नहीं सुधरी 1964 का साल आते आते प्रधानमंत्री नेहरू की भी मौत हो गई और चीन का ये युद्ध हमेशा के लिए उनके लंबे राजनीतिक करियर में एक बड़ी हार की तरह देखा जाने लगा
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लेकिन भारत आज भी अक्साई चिन पर अपना क्लेम करता है और हमारे पास उसके लिए कई लीगल आर्गुमेंट्स भी लेकिन सवाल साहब यहाँ पर ये है की आप जब चीन और भारत के बीच में एक बार फिर टेंशन है और ये हालत हो गई है कि चीन के एक रेशन के कारण मेजर शैतानसिंह के मेमोरियल को हमें पीछे शिफ्ट करना पड़ा
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ये तो क्या इस बार हम 1962 का बदला लेने के लिए तैयार हैं क्या इस बार चीन को सबक सीखाना अक्साई चीन वापस लिया जा सकता है आपको क्या लगता है, अपनी राय कॉमेंट्स में जरूर लिखें
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